पिछले कुछ दिनों से कोरोना वायरस के वजह से जिंदगी उथल पुथल हों गई । सुबह शाम रात फिर वही उठकर जगने पर कोरोना की बात। फिर भी कोरोना ने एक बात सिद्ध कर दी कि जिंदा रहना ही हमारा लक्ष्य है। डर हैं,ना जाने किस किस से।अपने से ,पड़ोसी से।कोई कहता है कि पेपर मत छूना।कोई कहता है कि दरवाजे के लॉक व हैंडल मत छूना।कोई कहता है कि ……।बस कुछ नहीं पता।मै अपने मित्रो से बात कर रहा था कि हर पीढ़ी ने कुछ ना कुछ ऐतिहासिक देखा हैं,मगर हमारी पीढ़ी ने ग्लोबलाज़ेशन देखा,जो जिसने पूरे विश्व को प्रभावित किया।मगर आपातकाल जैसी कोई बात नहीं देखी। कोरोना वायरस ने बहुत कुछ दिखाया खासकर ये —

1.सामाजिक दूरी
2.परिवार के साथ समय बिताना
3.कालाबाजारी
4.आवश्यक सेवाओं में लगे लोगों की हौंसला अफजाई करना
5.घर में जितने पेंडिंग काम निपटाना.
6.अगर इसी तरह लॉकडाउन रहा तो जिंदा रहने के लिए आवश्यक चीजे इकट्ठा करना,लेकिन कहां से.
7.लोग समय ना होने की बात कहते थे,मगर ऐसा समय मिला है कि ना कहीं जा सकते है और ना ही कुछ कर सकते है.
8. मोटीवेशन की “डर व भय”की परम्परागत थियोरी,जो अधिकतर विद्वान नकारते हैं.

ड़र व भय की परम्परागत विचारधारा……
आज आप लोग सोच रहे होंगे कि.. जिंदा ही रहना हमारा लक्ष्य है …कि जगह यह कोरोनावायरस की बात करने लगे।सच यही है कि जिंदा रहना ही हमारा लक्ष्य है ।भय व ड़र की वजह से आज़ सबने अपने को घर में लॉक कर लिया या कोई और नई कोई बात हुयी।क्योंकि ड़र व भय हमारी पुरानी पीढ़ी के अनुशासन के महत्वपूर्ण हथियार थे ।और आज भी हैं।बॉस का ड़र ,नौकरी जाने का ड़र,बच्चों के भविष्य का ड़र,ऑफ़िस के टार्गेट पूरा ना हो पाने का ड़र और ना जाने कौन कौन अन्य ड़र।
हमारा दिमाग़ बचपन से ही एक राह पकड़ के चलता हैं।किशोरावस्था में हमारे दिमाग़ में व्यापक बदलाव और विकास होता हैं।उम्र के 20-30 वे पड़ाव में हमारे दिमाग़ में प्लास्टिक सा लचीलापन आता हैं।हमारा दिमाग़ सौ ख़रब न्यूरान से मिलकर बना है ।यह इस कदर शानदार व ताकतवर होता हैं कि इसमें शामिल हर न्यूरान एक हज़ार से लेकर दस हज़ार अन्य न्यूरान के साथ संयोग भी बना सकता हैं।
दिमाग़ की सक्रियता का आकलन किया जाए तो जो आँकड़ा निकलेगा वह ब्रम्हाण्ड में मौजूद प्राथमिक कणों की संख्या से आगे निकल जाएगा।यह सिर्फ़ इसलिए बता रहा हूँ कि हमारे अंदर सोचेने की क्षमता कई लाख व करोड़ संयोग़ो के पार हैं।परंतु हम बड़े सोचने का दायरा छोटा व स्थायी कर लेते हैं।हमारे दिमाग़ में मात्र कुछ दस बीस चीजें ही चल रही होती हैं।जबकि बच्चों में किसी चीज़ को देर से ग्रहण करने के उनके जीवन में हमेशा पॉज़िटिव बदलाव देखने को मिलते हैं।यही उनको शारीरिक व अकादमिक सफलता के कारण बनते हैं।
आइये,सोचें कि ड़र व भय से बस ‘ज़िंदा रहना ही हमने अपनी ज़िंदगी का लक्ष्य’ बना लिया हैं या और भी कोई वज़ह हैं,इसकी ??
